धरती और आकाश very ramantic poem
धरती -रंग बिरंग रुप हैं तेरा
देखने से कभी मन नहीँ भरा
नीला सारा तन ये तेरा
आज तक न किसी ने देखा
लाल, हरा ,पिला
कभी उजला तो कभी कला
तुम हो रंगीन दुपट्टे वाली
पल भर में रुप बदलने वाली
कभी गरम,तो कभी ठंडा,
होकर दिल जलाती हो
देखता रहता हूँ मैं तुझे
क्या,क्या मंजर दिखती हो
चाँद जैसे मुखडे पर
सूरज बिंदियां लिए बैठी हो
अपने इस आँचल पर
चाँद तारे लिए बैठी हो
भोली भाली सूरत पे,
उदासी लिए क्यों बैठी हो
आँखो से तेरी बरसें आँसू
क्या तुम भी किसी से
मुहब्बत करती हो
आकाश -हाँ,करती हूँ इन पेड़ पौधों
जो जग में हरियाली लाते हैं
अपने धूप में जल ,जल कर
दूसरो को छाया देते हैं,
ये प्राडि हैं मेरे बच्चे
इसलिए तो मैं रोया करती हूँ
इसलिए तो मैं रोया करती हूँ ।
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धरती और आकाश very ramantic poem
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7:54 PM
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